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लक्ष्मी सोलहवें बरस में लग चुकी है। आज ब्याह है उसका। सुबह से ही रस्में शुरू हो गई हैं। सिलमायन, माटीमांगर, सुहाग देना, तेल चढ़ाना आदि-आदि। घर के दक्षिणी कोने के अँधेरे कमरे में एक चारपाई पर बिठाया गया है उसे। इसी कमरे में बहुत सी महिलाओं के डोलची-सूटकेस-बक्से आदि भी रखे हुए हैं। एक कोने में खाजे, कमरखी और बूँदी की झापियाँ रखी हैं जो कि कल लक्ष्मी के साथ उसके ससुराल जानी हैं। आने-जाने वाले उपहार स्वरूप जो साड़ियाँ वगैरह ला रहे हैं वो भी इसी कमरे में ला कर रख दिया जा रहा है। लक्ष्मी की चारपाई के नीचे भी एक बक्सा रखा है जिसमें विवाह के वक्त पहनने के लिए लक्ष्मी की पियरी, चुनरी आदि रखी गई हैं। पूरा कमरा बेतरतीबी से भरा हुआ है। लक्ष्मी को एक पुराना सूट पहनाया गया है, क्योंकि शादी के पहले जो कपड़ा लड़की नें पहन रखा होता है उसे नाइन ले लेती है उबटन की लगवाई। लक्ष्मी को बहुत गुस्सा आता था नाइन पर, पंद्रह दिनों से रोज़ वो उबटन लगा-लगा कर लक्ष्मी के हाथ-पैर ऐठती रहती है उसी गंधौरे से सूट के लिए। तेल, उबटन, मिठाइयाँ, नए कपड़े आदि सबकी महक आपस में मिल कर अजीब सी गंध पैदा कर रहे थे, लक्ष्मी का जी घबराने लगा था, उसने कई दिन से ठीक से कुछ खाया-पीया भी नहीं था और ना सोई थी। वो निढाल हो कर चारपाई पर अपने दुपट्टे से मुह ढांक कर लेट गई। बीच-बीच में नई आने वाली मेहमान महिलाएँ उसे देख जातीं, हाल-चाल पूछ जातीं, बच्चे जिज्जी-जिज्जी कर उसके पास हाज़िरी दे जाते, वो हाँ या ना में जवाब दे फिर उसी तरह बेशक्त सी पड़ी रहती चारपाई पर।
लक्ष्मी के दादा जी, राजा रीवां के नजदीकी खानदानी हैं और भरपूर धन-संपदा, ज़मीन-जाएदाद, नौकर-चाकर के मालिक भी। हवेलियों जैसा घर है। राजपरिवार का रूतबा है। दो बेटे थे इनके, उनकी शादियाँ भी अच्छे ऊँचे खानदानों में हुई थी। बस एक ही दुःख था, बड़े बेटे की अकाल मृत्यु....वो भी निःसंतान. बेचारी बड़ी बहू दिन-रात रोती रहती कि खुद तो चले गए मुझे एक संतान ही दे गए होते सहारे के लिए. अब किसका मुह देख कर जियूं. छोटी बहू बहुत भली स्त्री थीं, उनसे जेठानी का यूँ तड़पना देखा नहीं जाता था. अपने जेठ की मृत्यु के समय वो गर्भवती थीं, उन्होंने जेठानी को ढांढस बंधाया 'जिज्जी...हम भाई साहब के कमी त न पूर कर सकब अउर न त अपना के(आपको) कोखि में संतान डारि सकब, लेकिन छोट बहिन के नाते हमरे कोखि में जउन हवै ऊ हम अपना के जरूर दइ सकित है......हमरे कोखि से चाहे बेटवा होए चाहे बिटिया उवा अपना केर रही'.
वक्त बीता, छोटी बहू नें एक परी सी बच्ची को जन्म दिया. अपने वादे के अनुसार बारहवें दिन सोवरी से निकलते ही उन्होंने अपनी पहली संतान को जेठानी की गोद में डाल दिया.....तब से वो बच्ची बड़ी बहू की ही बच्ची बन कर रही. घर में पैसे रुपये की कोई कमी नहीं थी सो बेटी का पैदा होना किसी को अखरा नहीं बल्कि उसके दादा धूमधाम से उसका जन्मोत्सव और नामकारण संस्कार करना चाहते थे लेकिन जवान बेटे कि मौत को साल भी नहीं बीता था इसलिय कोई उत्सव नहीं हुआ बस ब्राहमण बुला कर बच्ची के संस्कार करवा दिए गए....नाम रखा गया लक्ष्मी.
अपनें नाम जैसी ही थी लक्ष्मी. देवियों जैसा गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बे घुंघराले काले बाल, जगमग गोरा रंग और सबसे ख़ास थी उसकी शहद सी मीठी मुस्कान. लक्ष्मी के बाद उसकी माँ नें तीन और संतानों को जन्म दिया लेकिन तीनों ही बेटे थे. वो घर की इकलौती बेटी थी, पिता की पहली संतान थी साथ ही उसे दो-दो माओं का प्यार नसीब हुआ था. बेहद नाजों में पली थी लक्ष्मी.
आज उसी लक्ष्मी का ब्याह हो रहा था. लेकिन घर में कोई भी खुश नहीं था, क्योंकि जिस घर में लक्ष्मी का रिश्ता दिया जा रहा था वो घर-वर किसी भी सूरत लक्ष्मी और उसके खानदान के रुतबे के योग्य नहीं थे. लड़के वाले बहुत ही सामान्य दर्जे के लोग थे, आम सा किसान परिवार..........लेकिन लक्ष्मी की बड़ी माँ अड़ गईं थी कि उनकी बेटी का ब्याह उसी घर में होगा वरना वो ज़हर खा लेंगी. रिश्ता भी उन्होंने दो-ढाई महीनों के भीतर आनन-फानन में अपनें भाई को भेज कर ठीक करवाया था और भाई को ये हिदायत भी थी कि सामान्य परिवार ही देखे बस अपनी जाति का हो. लड़के वालों के लिए लक्ष्मी के घर से रिश्ता आना नेमत के जैसा था, इतने बड़े घर की बेटी हमारी बहू बनेगी, खूब दान-दहेज मिलेगा, बिरादरी में मान बढ़ जाएगा और बेटे को भी भविष्य में अपने ससुराल से मदद मिलती रहेगी. लक्ष्मी के मामा नें लड़के के पिता को बताया था कि हम धन-दौलत से शादी नहीं करना चाहते अपनी लड़की की, हमें तो ऊँचा कुल और गोत्र चाहिए जो कि आपका है इसीलिए हम चाहते हैं कि हमारी भांजी आपके घर आए. धन तो हमारे पास इतना है कि जिस घर बेटी ब्याहेंगे उसका घर भर देंगे, आखिर एक ही तो बेटी है. लड़के वाले गदगद हो उठे, रिश्ता पक्का हुआ.
लक्ष्मी की माँ बेटी का मुह देख-देख कर रोए जा रहीं थीं उस दिन को जिस दिन उन्होंने अपनी फूल सी बेटी को जेठानी के हवाले किया था, उन्होंने तो अपना समझ कर अपनी बेटी उनके हवाले कर दी थी, मगर जेठानी ने कैसी दुश्मनों जैसी कसर निकाली है उनकी बेटी से. कंगलों के घर भेज रहीं मेरी राजकुमारियों सी बच्ची को, जाने कैसे निबाहेगी वहाँ.
खैर, इन्हीं सब के बीच लक्ष्मी का ब्याह हो गया. अगले दिन लक्ष्मी ससुराल आ गई बहुत सारा दहेज लेकर. ससुराल में लक्ष्मी, लक्ष्मी ही बन कर आई थी. पैसा रुपया, सामान और जेवरात से घर का एक-एक सदस्य लद सा गया. किसी की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था. बहू भी इतनी सुन्दर की जहाँ बैठे उजाला कर दे. गाए जैसी बड़ी-बड़ी आँखों में ऐसी मासूमियत कि वो अपने झीने-झीने घूँघट के नीचे से भी जिसे देखती वो सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था...स्वर्ग की अप्सरा जैसी सुन्दर बहू का इस चूते-बहते घर में आना वो भी ऐसे लाव-लश्कर के साथ....सबके लिये सपने जैसा था.
लेकिन ये स्वप्नलोक जल्द ही ध्वस्त हो गया. शादी के छठें-सातवें दिन बहू की काफ़ी तबियत खराब हो गई. उल्टियां, बुखार, चक्कर. सब परेशान हुए कि अपनें घर में इतने नाज़ों में रही है यहाँ वैसी सुविधाएं तो है नहीं ऊपर से ऐसी गर्मी, बहू झेल नहीं पाई. कोई सामान्य बहू रही होती तो ससुराल वालों के लिए उसे ऐसी उल्टियाँ और भुखार का आना भी सामान्य बात होती, लेकिन ये ठहरी बड़े घर की बेटी सो इसकी बीमारी भी बड़ी बात हुई.
ट्रेक्टर में ट्राली सेट की गई, ट्राली पर तिरपाल से टेंट बनाया गया. सास, ननद, ननदोई और ससुर बहू को लेकर शहर के अस्पताल पहुंचे. सभी ज़्यादा से ज़्यादा परेशान दिखने के प्रयत्न में लगे थे. सास नें तो रोना भी शुरू कर दिया था.
डॉक्टर बहू को लेकर अन्दर गई जांच-पड़ताल के लिए और मुस्कुराते हुए सास को बताया कि फ़िक्र मत करिए, कुछ नहीं हुआ है आपकी बहू को, ये गर्भवती है चार माह की. आप लोग ध्यान नहीं रखते इसका इसलिए कमज़ोर हो गई है. दो-तीन दिन अस्पताल में ही रखिये ठीक हो जाएगी.
सास के पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गई, सात दिन की ब्याहता, चार माह का गर्भ? वो सर पर हाथ धरे बाहर आईं और बाकी परिवार वालों को बहू के गर्भ से होने की बात बताई. अब तक जो लोग बहू के लिए बेतहासा फिक्रमंद थे उन सबकी फ़िक्र धुंए की तरह उड़ गई, सबकी त्योरियां चढ़ आईं. बहू तो अंदर वार्ड में थी फिर भी अपनें ही सामने सबनें उसे और उसके परिवार को जी भर के कोसा, गालियाँ दीं. अगर ये अस्पताल की जगह घर होता और बहू इतने रुतबे वाले घर की बेटी ना होती तो जाने क्या-क्या सलूक किया जाता उस बदचल बहू के साथ मगर अपनी हैसियत देखते हुए सबने अपने गुस्से पे काबू किया और तय हुआ कि बहू के मायके किसी को भेज कर ये सन्देश दिया जाए और कोई एक जा कर बहू से पूछे कि कहाँ का पाप ले कर हमारे घर आई है.
ड्राइवर को एक चिट्ठी के साथ बहू के मायके भेजा गया और ननदोई जो कि एक भला और समझदार इंसान था, तैयार हुआ बहू से बिना गाली-गलौज सब बातें पूछने के लिए.
ननदोई जैसे ही लक्ष्मी के पास पहुँचा, वो उसके पैर पकड़ कर रोनें लगी 'जीजा जी मैनें कुछ नहीं किया है.......मुझे माफ़ कर दीजिये, मुझे बचा लीजिये.'
सोलह साल की बच्ची को, हँसने-चहकने की उम्र में, ऐसे रोता और बेबस देख ननदोई का भी दिल भर आया उसने लक्ष्मी को जैसे-तैसे चुप कराया और पूछा कि दुल्हन जो हुआ है बता दो सही-सही, तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा मैं संभाल लूँगा.
लक्ष्मी, जो डर वश चार महीनों से चुप थी, वो बात जो अपनी बड़ी माँ के अलावा किसी से नहीं बता सकी थी, कोई और राह ना सूझने की सूरत में आज ननदोई को बताई; 'मेरे पड़ोस में बहुभोज था, घर के सब लोग वहाँ जाने को तैयार थे कि मेरी बुआ का बेटा घर आ गया. बड़ी माँ नें मुझे कहा कि तुम घर पर रुक जाओ भईया को चाए-नाश्ता दो हम लोग जल्दी ही लौट आएँगे. सब घर से चले गए, मैं भईया को चाए-नाश्ता दे कर छत पे चली गई हवा लेने...' इतना कह कर लक्ष्मी फिर रोने लगी. (कुछ देर चुप्पी के बाद)
ननदोई- छत पे चली गई तो क्या हुआ दुलहन?
लक्ष्मी- (रोते हुए) भईया ऊपर आ गए, सीढ़ी का दरवाज़ा बंद कर दिया और मेरे साथ ज़बरदस्ती की.
ननदोई- (चुपचाप-चाप लक्ष्मी का मुह देखता रहा)
लक्ष्मी- (सर नीचे किये सुबकती रही और बोलती रही)मैं बहोत रोई-छटपटाई, लेकिन उन्होंने मेरा नाक और मुह दबा रखा था......मेरी आवाज़ कोई सुन नहीं पाया.......बहुत मारा मुझे.... बोले कि नहीं करनें दोगी तो मार डालूँगा.....फिर मुझे बहुत डराया-धमकाया कि किसी से बताओगी तो मैं कह दूँगा तुम खुद ही आई थी मेरे पास कह रही थी चलो मेरे साथ सोओ, मैंने तुम्हे मार-पीट के वापस भेज दिया........पता चलने पे मुझे क्या होगा, कुछ नहीं....मामा तुम्हें मार डालेंगे.
ननदोई- (हैरत से) तो क्या तुमने किसी से कुछ नहीं बताया था अपने घर पे?
लक्ष्मी- (सर झुकाए हुए ही) मैं डर के मारे उस दिन किसी से कुछ नहीं कह पाई......लेकिन दर्द की वजह से मैं अच्छी तरह चल नहीं पा रही थी....बड़ी माँ को जाने कैसे समझ आ गया कि कुछ हुआ है, वो मुझे पकड़ कर भीतर ले गईं और पूछनें लगीं....मैनें तब उन्हें बताया दिया.
ननदोई- तो उन्होंने कुछ नहीं कहा?
लक्ष्मी- (आँसू आँचल से पूँछ कर).....फिर उन्होंने भी यही कहा कि किसी से कहना मत वरना सब तुम्हें मार डालेंगे.........फिर एक-डेढ़ महीने बाद मुझे बुला कर पूछीं कि तुम्हें 'महीना' आया कि नहीं?
ननदोई- और उसके बाद तुम्हारी शादी करा दी?
लक्ष्मी नें 'हाँ' में सर हिला दिया......रोनें से उसकी आँखें सूज कर अजीब हो चुकीं थी, सबको सबकुछ पता लग जानें कि दहशत उसके चेहरे पे साफ़ दिख रही थी. ननदोई नें उसे समझाया, दिलासा दे कर कि तुम्हारी कोई गलती नहीं है, तुम्हें कोई कुछ नहीं करेगा, मैं सबको समझाऊँगा.... कह कर वो बाहर चला गया. लक्ष्मी अपराधिनी सी अस्पताल के बिस्तर पर ऐसे बैठी रही जैसे कोई अक्षम्य अपराध किया है और अदालत के कठघरे में खड़ी है, अब उसे सज़ा के तौर पर 'मौत' सुनाई देने वाला हो.......अपने ननदोई में उसे थोड़ी सी उम्मीद नजर आ रही थी. वो चाह रही थी कि उन्हें रोक ले और उनके पीछे छुप जाए, जिससे उसे कोई मार ना पाए. क्योंकि उन्होंने कहा था कि 'वो सब सम्भाल लेंगे'....
लक्ष्मी का ननदोई, लक्ष्मी के पास जाने से पहले उसके प्रति घृणा से भरा था मगर उससे बात कर के और उसकी बेबसी, डर से बेरंग हो चुका उसका चेहरा, बड़ी आँखों में भरे आँसू देखर लक्ष्मी के प्रति उसका मन द्रवित हो उठा.....वो निःसंतान था, सोचने लगा की यदि हम दंपत्ति को समय से इश्वर नें संतान दी होती और यदि वो बेटी होती तो शायद लक्ष्मी के जितनी उम्र की हो चुकी होती.....निरपराध लक्ष्मी के ऐसे हश्र के बारे में सोच कर उसका मन भीतर तक दहल गया..वहां से वो सीधे डॉक्टर के पास गया गर्भपात की बात करनें लेकिन डॉक्टर नें साफ़ इनकार कर दिया क्योंकि एक तो गर्भ अधिक दिन का है और लक्ष्मी की उम्र बहो कम है.....ननदोई हारा सा वापस लौट गया. वो सोचने लगा कि आखिर लोग क्या फैसला करेंगे लक्ष्मी के लिए? क्या उसका गर्भपात करवाएँगे? या पति उसे छोड़ देगा? या सच में कुछ वैसा होगा जिसके लिए लक्ष्मी डर रही है, उसे मार दिया जाएगा? ज़ाहिर सी बात थी कि फैसला इनमे से ही कोई एक होना था....और ये सारे ही फैसले उस मासूम बच्ची के साथ घोर अन्याय होंगे. उसे याद आ गया की कैसे लक्ष्मी उसके सामने गिड़गिड़ा रही थी; 'मैंने कुछ नहीं किया है....मुझे बचा लीजिये जीजा जी'.
उसके ननदोई नें जब बाहर आकर सबको सारी बातें बताई तो कुछ देर के लिए सबके मन में कुछ वक्त के लिए लक्ष्मी के प्रति सहानुभूति के भाव आए मगर जल्द ही वो जरा सी सहानुभूति भी जाती रही. सबका यही कहना था की ये सब हुआ चाहे जैसे भी लेकिन हुआ तो है ही, हमारे घर तो वो गंदगी लेकर ही आई है. किसी से समर्थन मिलता ना देख ननदोई अपनी पत्नी को लेकर किनारे गया और उसे काफ़ी समझाया-बुझाया कि उस बच्ची के साथ और गलत नहीं होना चाहिए, तुम सबसे कह दो कि दुल्हन को मायके भेज दें....बच्चा पैदा होने तक वो अपनी बड़ी माँ के साथ कहीं बाहर जा कर रह ले, बच्चा पैदा होते ही उसे हम दोनों ले लेंगे और सबसे कह देंगे हमनें अनाथालय से बच्चा गोद लिया है...उसके बाद दुल्हन का गौना कर के उसे ससुराल लाया जाए. वो बेचारी पहले ही दुःख की मारी है, वो कब जानती थी कि भाई ही उसके साथ ये सब करेगा. अगर बच्चा हम ले लेंगे तो दोनों परिवार बदनामी से भी बाच जाएंगे, दुल्हन की जिंदगी भी खराब नहीं होगी और हमें भी एक संतान का सहारा हो जाएगा. उसकी पत्नी को बात ठीक तो लगी मगर वो कुछ फैसला नहीं कर पाई......ये बोल कर आ गई कि दुल्हन के मायके से कोई आ जाए उसके बाद देखते हैं क्या करना है.
रात के लगभग १० बजे होंगे कि लक्ष्मी की बड़ी माँ, लक्ष्मी का १३-१४ बरस का भाई आ गए अस्पताल. पहुँचते ही उसकी बड़ी माँ जोर-जोर से पहले तो रोनेन लगीं फिर लक्ष्मी की सास के पैरों पर गिर कर तरह-तरह से माफ़ी मांगने लगी...इस अप्रत्याशित प्रलाप से सभी कुछ देर के लिए अचंभित हो गए, इससे पहले कि कोई कुछ बोलता समझता उन्होंने अपने हाथ के सोने के कड़े लक्ष्मी की सास के पैर में रख कर आँचल के कोर से उनका पैर छू कर आँचल माथे से लगा लिया. सास हैरत से उस मोटे कड़े को देखने लगी, फिर धीरे से बोलीं 'ये क्या करुँगी मैं इसे पहन लीजिये आप. लक्ष्मी की बड़ी माँ नें रोते हुए ही जवाब दिया कि; 'समधन साहब, विपत्ति चाहे जैसी पड़ी हो लेकिन मैं खाली हाथ तो आपका पैर नहीं छो सकती, मुझ पर तो वैसे ही दुःख का पहाड़ टूट पड़ा है अब इसे अस्वीकार कर के आप मुझे पाप का भागी मत बनाइये, मुझ पर दया कीजिये, इसे स्वीकार करिए और मुझे आशीष दीजिये.'......लक्ष्मी की सास नें ज़रा संकोच के साथ कड़ा उठा कर रख लिया, जैसे की सच में वो समधन पर एहसान कर रही हैं. लगभग दो घंटे तक शिकायतों, उलाहनों का दौर चलता रहा, बीच में लक्ष्मी के नंदोई नें भी अपनी बात कह दी.......अंत में ये तय हुआ कि कल लक्ष्मी को मायके ले जाया जाएगा उसके बाद देखेंगे कि आगे क्या होगा.
लक्ष्मी की बड़ी माँ नें बेहद अपनाई और गुजारिश भरे अंदाज़ में कहा 'आप लोग काफी थक चुके होंगे, कोई ठिकाना हो तो जा कर आराम कर लीजिये, मैं रहूंगी अस्पताल में.' ससुराल वालों के किसी रिश्तेदार का घर था अस्पताल के ही नज़दीक, सभी वहाँ रात सोने चले गए बस लक्ष्मी की बड़ी माँ और भाई वहाँ रुके.
भोर होने वाली थी, तारे डूब चुके थे, सूरज अभी नहीं निकला था, आसमान में अकेला चाँद दिख रहा था बदरंग सी सफेदी लिए, उसकी चांदनी और रंगत गायब थी. लक्ष्मी का भाई भागता-दौड़ता ससुराल वालों के पास पहुँचा, उन्हें जगाकर बताया कि; 'जल्दी चलिए, जिज्जी की तबियत बहुत ख़राब है, बड़ी माँ नें कहा है कि सबको जल्दी बुला लाओ.'
ससुराल वाले जब तक अस्पताल पहुँचे, लक्ष्मी आख़िरी साँसे गिन रही थी, उसका शरीर नीला पड़ चुका था, मुह से झाग बह रहा था, पेट ढीला पड़ कर एक तरफ़ चुका था, साड़ी बदली जा चुकी थी. उसकी ननद नें देखा कि उसकी बड़ी माँ के गले की मोटी सी लाकेटदार सोने की चेन ग़ायब है.....सभी आवाक् से खड़े उसे देखते रहे, ना किसी नें कुछ पूछा, ना कोई कुछ बोला. सभी चुप थे, कमरे में सिर्फ उसकी बड़ी माँ के सुबकनें की आवाज़ आ रही थी.
लक्ष्मी के शरीर को बीच-बीच में झटके से लग रहे थे, उसकी अंतिम नज़र अपने ननदोई पर ही थी, आँखों में अभी भी याचना के भाव थे, जैसे कहना चाह रही हो कि; जीजा जी, मुझे बचा लीजिये. ननदोई उसके पास जा कर उसका बेजान और ठंडा हाथ पकड़ कर खड़ा हो गया...मनो उसके अंतिम सफ़र में उसे सहारा देने की कोशिश कर रहा हो...लक्ष्मी की साँसे टूट रही थी उसे लग रहा था जैसे सब उससे दूर चले जा रहे हैं.....लेकिन वो नहीं रोक पाती, कुछ कह नहीं सकी. उसे लग रहा था कि जैसे वो सारी दुनिया की अपराधिनी. वो नंगे पैर, नंगे आसमान के नीचे तपती रेत पर खड़ी है और हज़ारों हज़ार लोग तरह-तरह के हथियार लिए उसकी तरफ दौड़े आ रहे हैं उसे उसके किये कि सज़ा देने....उस भीड़ में उसे सबसे आगे दिखाई दे रहे थे अपने पिता, तीनों भाई, पति, ससुर और जेठ. उसका ननदोई कहीं किनारे खड़ा बेबस सा उसे देख रहा है, वो चिल्ला कर उन्हें बुलाती है कि जीजा जी बचा लीजिये मगर वो कुछ नहीं कहते......कुछ दूर पर उसे अपना वो फुफेरा भाई खड़ा दिखता है जिसनें उसका बलात्कार किया था, वो हंस रहा है कि मैनें तो कहा था कि मेरा क्या होगा, तुम्हें सब मार डालेंगे. लक्ष्मी चिल्लाती है कि मैनें कुछ नहीं किया, दादा नें मेरे साथ ज़बरदस्ती की थी, लेकिन कोई उसकी बात नहीं सुनता...वो वहीं रेत पर गिर जाती है, भीड़ उस तक पहुँच चुकी है, उसे मार रही रही है...........और उसकी आँखें बंद हो जाती हैं.
अबकी बिना किसी राय-मशवरे के ये समझ लिया गया है कि लक्ष्मी सुहागन मरी है इसलिए उसका क्रियाकर्म पति करेगा. मृत लक्ष्मी को ससुराल ले जाने की तैयारी होने लगी. अस्पताल वाले बॉडी डिस्चार्ज की प्रक्रिया में लगे हैं. एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी काफ़ी देर से ससुराल वालों के आस-पास मंडरा रही है. मौक़ा देख कर उसकी ननद के कान में बता गई कि; 'महतारी नें बड़ी डॉक्टरानी से उसका बच्चा गिरवा कर कोई सोई लगवा दी थी'...ननद नें कुछ कहा नहीं, बस हाँ में सर हिला दिया.
सबको पता था कि लक्ष्मी की निर्मम हत्या हुई है मगर सबने, सबको बताया की लक्ष्मी को पीलिया था, बिगड़ गया, मर गई.
इस तरह लक्ष्मी को उसके डर, तकलीफ़ों, बदनामी और अनचाहे गर्भ से रिहा कर दिया गया. मायके वालों की इज्ज़त रह गई, ससुराल वालों का मान रह गया. कई-कई पुरुषों के मान-मर्यादा की रक्षा के लिए एक निरीह, निरपराध स्त्री की बलि देवी-देवताओं और अपनों-परायों सबने सामान भाव से स्वीकार की.
दादा-दादी नें मुझे गंगा कोहार(कुम्हार) के कई किस्से सुनाए थे, हालाँकि अब मुझे उनमें से बस कुछ एक ही याद रह गए हैं, इसलिए इससे पहले कि वो भी विस्मृत हो जाएँ मैं उन्हें लिख देना चाहती हूँ.
मेरे बुज़ुर्गों नें बताया था कि गंगा एक शातिर चोर था. हमारे गाँव आ कर बसनें वाला पहला कोहार गंगा ही था, पूरा कोहरान(कुम्हारों का मोहल्ला) उसी गंगा चोर वंशज हैं.
बकौल दादी, गंगा मेरे दादा जी के दादा का समकालीन था, चोरी के फन में ग़ज़ब का माहिर लेकिन कभी उसे कोतवाली वाले पकड़ नहीं सके थे. गाँव के एक सूखे कुँए से उसनें सुरंग बना रखी थी मगर वो किसी के संज्ञान में नहीं थी, मुसीबत के वक्त गंगा उसी सुरंग के जरिया गाँव से बाहर निकल जाता था. चोरी के माल को छुपाने और उसे बाहर ले जाने के लिए भी गंगा इसी सुरंग का इस्तेमाल करता था.
एक दफ़े दूर किसी गाँव में ब्राहमण के बेटे की शादी हुई थी, उसे बहुत सारा दहेज मिला है, इस बात का खूब शोर हुआ. बात गंगा तक भी पहुंची, बस फिर क्या था हमारे गंगा साहब की नज़रे इनायत हो गई पंडी जी के घर पर और घर साफ़. पंडी जी रसूख वाले आदमी थे, तुरंत रपट कराई गंगा कोहार के नाम क्योंकि कि वो जानते थे कि ऐसा काम किसी मामूली चोर का नहीं है. दरोगा अपनें दो-तीन सिपाहियों के साथ धड़धड़ाता हुआ आ धमका गंगा के घर. गंगा ने झट दरोगा को दंडवत किया, कुशल-क्षेम पूछा और आने की वजह भी. दरोगा नें जैसे ही वजह बताई, गंगा बड़े-बड़े आँसू रोने लगा 'हाए! माई-बाप, हम चोर जरूर हई लेकिन बाभन के घरे में चोरी करी के हम आपन सरग न बिगाड़ब, साहेब हमरे घरे क तलासी कराई लें, जो पंडी जी के घरे क एक्को ढेला भी मिल जाई त हमके जेहल-फाँसी कराई दें.'......और वो टोकरी भर चीनी ला कर दरोगा के पास, कुँए की जगत पर बैठ कर उसे शर्बत बना कर पिलाने लगा. सिपाही बहुत देर तक गंगा के घर के आले, ताखों और ठाट की तलाशी करते रहे मगर कुछ भी हाथ नहीं लगा, अंततः हार कर दरोगा-सिपाही वापस चले गए.
उनके जाते ही गंगा का बेटा जो कि अब-तक घबराया सा गुप-चुप खड़ा था, भाग कर गंगा के पास आ कर पूछा- 'बाबू, गहना कहाँ बा(गहना कहाँ है)?'
गंगा नें मुस्कुराते हुए टोकरी में हाथ डाल चीनी के नीचे से कोई ज़ेवर निकालते हुए बेटे से कहा- 'इहाँ बा(यहाँ है).'
पुलिस गहनों की तलाश में उसका पूरा घर छान रही थी और गंगा गहनें टोकरी में रख ऊपर से चीनी डाल दरोगा के पास ही बैठ था.
गंगा की चोरी का ऐसा ही एक और किस्सा है, रानी रीवा का नौलखा हार चुराने का किस्सा. गंगा की चोरी के किस्से जब मध्यप्रदेश के रीवा स्टेट के राजा के पास पहुंचे तो उन्होंने गंगा को अपने दरबार में बुला कर उससे शर्त लगाई कि- अगर तुम मेरी रानी का नौलखा चुरा कर दिखा दो तो मुह मांगा ईनाम दूँगा. गंगा नें शर्त स्वीकार ली, इस काम के लिए राजा नें उसे दस दिन का वक्त दिया.
राजा जानते थे कि दिन में महल में काफ़ी चहल-पहल रहती है ऐसे में दिन में तो हार का चोरी होना नामुकिन बात थी, राजा को असल फ़िक्र रात कि थी कि कहीं पहरेदारों से कोई चूक ना हो जाए और गंगा मौके का लाभ उठा ले. इसलिए राजा नें एक बड़े से थाल में हार रख कर उसे रस्सी की शिकहर के सहारे शयनकक्ष में अपनें बिछौने के ठीक ऊपर टंगवा कर थाल को पूरा पानी से भरवा दिया, जिससे अगर कोई थाल को छूनें की कोशिश भी करे तो रस्सी के हिलनें की वजह से थाल से पानी छलक कर राजा के ऊपर गिर जाए जिससे राजा की नींद खुल जाए और वो चोर को देख लें.
लेकिन गंगा भी तो था शातिरों का नवाब. वो दिन के वक़्त भिखारी बन कर महल के आस-पास ही घूमता रहता और रात होनें पर महल के नरदे(पुराने स्ट्रक्चर्स में पानी की निकासी और महल में शीतलता बनाए रखनें के लिए बड़ी-बड़ी नालियां बनीं होती थीं, जिन्हें अवधी और बघेली बोलियों में 'नरदा' कहते हैं) के रास्ते महल में घुस कर राजा के शयनकक्ष के रोशनदान पर चढ़ जाता. उसनें बांस की एक कनई( बाँस की पतली सी लम्बी डंडी), जो कि रोशनदान से थाल तक पहुँच सके, पर छोटा सा दीपक बाँध रखा था. उसी दीपक में थोड़ी-थोड़ी राख भर कर वो रोज़ रात थाल में डाल देता, उसने ऐसा छः रातों तक लगातार किया. सातवीं रात जब उसे यकीन हो गया कि अब राख नें थाल का पानी सोख लिया होगा तो उसनें थाल को चुपके से शिकहर पर से उतार लिया और अगले दिन उसे राजा के सामने हार लेकर पेश हुआ. उसकी करामत देख लोग दंग रह गए. राजा नें गंगा को खूब सारा ईनाम देकर विदा किया.
गाँव वापस आने के बाद गंगा की खूब वाह-वाह होनें लगी. लेकिन गाँव के ही एक ठाकुर साहब, जिनके घर की स्त्रियाँ बहुत ही सख्त पर्दे में रहती थीं और घर में महलों जैसा कोई बड़ा नरदा-नाली भी नहीं था जिससे कोई अंदर आ जाए, उन्होंने गंगा का उपहास करते हुए कहा कि- 'राजा रीवा मूर्ख थे जो इतने इन्तेजाम के बाद भी हार की चोरी नहीं रोक सके. मैं भी बाजी लगाता हूँ गंगा से कि मेरे घर की बहू-बेटियों का कोई ज़ेवर चुरा कर दिखा दे तो मानूँ. बल्कि मैं तो अलग से कोई इंतज़ाम भी नहीं करूँगा, जैसे रहता हूँ वैसे ही रहूँगा, मेरी बहू-बेटियों के संस्कार और लाज-पर्दा ही गंगा को सफल ना होने देंगे. ठाकुर को पता था कि ना तो उसकी बहू-बेटियाँ बाहर निकलेंगी ना तो गंगा घर में घुसेगा क्योंकि एक ही गाँव में होने के नाते गंगा, ठाकुर के घर की बहू-बेटियों को अपनी ही बहू-बेटियाँ समझता था इसलिए वो रात में सोए-जागे वो उनके पास नहीं जाएगा.
मगर गंगा तो आखिर गंगा था. शर्त वो भी चोरी करने की कैसे ना स्वीकारे या हार जाए. तब के वक्त में लोगों के घरों में शौचालय तो होते नहीं थे सभी दिशा-मैदान के लिए बाहर जाते थे. बहुएँ तो बिलकुल मुह अंधियारे, तारे डूबने के पहले ही निबट आती थीं जिससे कोई देख-सुन ना ले. ठाकुर के घर के पीछे कुछ दूर पर कैंथा, बेर, मेंहदी, बांस आदि का छोटा सा जंगलनुमा इलाक़ा था, औरतें दिशा मैदान के लिए उसी जंगल में जाती थीं. एक रोज़ भोर में ठाकुर की पंद्रह या सोलह बरस की नई-नवेली बहू, उसी जंगल की तरफ जा रही थी कि अचानक कैंथे के पेड़ से कोई आदमी कूद कर उसके सामने आ खड़ा हुआ, बेचारी बहू की तो मारे डर के घिग्घी ही बंध गई. लेकिन गंगा नें बड़ी ही शालीनता से बहू को सलाम कर के अपना नाम बताया और ठाकुर की शर्त के बारे में भी, बहू सहमी हुई उसकी बात सुनती रही, उसे लगा जाने कौन है ये, आदमी है या जिन्न-प्रेत जो आदमी बन कर खड़ा है. उसे शर्त-वर्त कुछ नहीं समझ आ रही थी, उसे बस ये लग रहा था कि कैसे भी मेरा पीछा छोड़ दे ये. तब तक गंगा नें उससे कहा कि बहू जी अपना कोई ज़ेवर दे दीजिये उतार कर, मैं बस ठाकुर को दिखा कर आपको लौटा दूँगा. बहू की जान में जान आई. उसे लगा जैसे बचने का रास्ता मिल गया हो, उसनें झट अपनी एक पाजेब उतार कर गंगा को पकड़ाई और वहाँ से भाग कर सीधे घर आई. लेकिन डर के मारे उसने किसी से कुछ कहा नहीं. उसे अपनी पाजेब के चोरी होने का डर था कि अगर सास को पता चला तो जाने क्या करेंगी उसका.
दोपहर के वक्त ठाकुर की दालान में ठाकुर कई लोगों के साथ बैठे हुए थे कि गंगा पाजेब लेकर हाज़िर हो गया, पहले तो ठाकुर उस पर भड़क उठे कि साले कोह़ार की जात तुम्हारी इतनी मजाल की तुम मेरे घर में घुसे और मेरी बहू को हाथ लगाया, उसकी पाजेब उतारी....जान ले लूंगा आज तुम्हारी. लेकिन गंगा नें माफ़ी मांगते हुए बताया कि ना तो वो घर में घुसा और ना बहू को छुआ बल्कि बड़ी ही शालीनता से बहू से पाजेब मांगी थी, वो भी शर्त पूरी करने के लिए और अब लौटा भी देगा. गंगा की बातें सुन बाकी के लोग गंगा का समर्थन करने लगे क्योंकि शर्त तो ठाकुर नें ही लगाई थी. ये ऐलान हुआ कि गंगा शर्त जीत गया. ठाकुर नें उसे शर्त के मुताबिक़ जो ठहरता था दे कर रवाना किया. लेकिन अन्दर ही वो अपमान का घूँट पी कर रह गए.
गुस्से से आग बबूला होते ठाकुर पाजेब ले कर घर के भीतर गए, और जिस बहू की पाजेब थी उसे तलब किया. बहू खुश हुई कि लगता है उस चोर नें सच में मेरी पाजेब लौटा दी. मगर बहू बेचारी कब जानती थी कि उसके साथ क्या होनें वाला है.
इधर ठाकुर को लग रहा था कि आज इतनी बेईज्ज़ती इस कुल्टा बहू के कारण ही हुई है. चोर को पाजेब देकर खानदान की नाक कटानें से तो अच्छा था कि वहीं ईंट-पत्थर पे अपना सर पटक के मर जाती या नदी में कूद जाती. अपमान और हार की कसक में कुढ़ते ठाकुर नें बहू के आते ही कस के लाठी उसकी टांगों पर मारी, वो चिल्लाती हुई नीचे गिर गई. गिरते ही ठाकुर की पत्नी और बेटे नें बहू के दोनों हाथ पैर दबोच लिए, ठाकुर नें बहू की चोटी खींच कर उसकी गरदन के नीचे एक लाठी रखी फिर अपनी दैत्याकार हथेली से उसका छोटा सा माथा ज़मीन पर सटा कर एक लाठी उसकी गरदन के ऊपर लगा दी और दोनों लाठियों के दोनों किनारों को तब तक अपने दोनों हाथों से भींचे रखा जब तक कि बहू का रोना, चीखना, माफ़ी मांगना, तड़पना बंद नहीं हो गया. पाजेब लेने आई थी जान गवा बैठी.
इस तरह से ठाकुर नें अपने अपमान का बदला लिया, अपना क्रोध शांत किया और घर की बाकी औरतों को अच्छे संस्कार की सीख दी. कहते हैं कि गंगा कोहार नें उसके बाद से शर्त लगा कर चोरी करना छोड़ दिया था.